The dogma of returning the filed case

दर्ज केस वापसी की हठधर्मिता

Editorial

The dogma of returning the filed case

यह संविधान और कानूनों से ऊपर जाकर खुद की समानांतर सत्ता कायम करने का मामला है। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन चलाने वाले किसानों को यह काफी नहीं लगता है कि केंद्र सरकार ने तीनों कानूनों को वापस ले लिया। हालांकि अब उनकी हठधर्मिता एमएसपी और कथित आंदोलन के दौरान उपद्रवियों पर दर्ज हुए मामले वापस लेने को है। आखिर लोकतांत्रिक प्रणाली का यह कैसा मजाक है, कि जो कानून को धत्ता बताते हैं, बाद में सरकार पर दबाव बनाकर खुद पर दर्ज हुए पुलिस मामलों को वापस लेने की जिद करते हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के साथ किसान संगठनों के प्रतिनिधियों की बैठक में दर्ज मामलों को वापस लेने के संबंध में कोई फैसला नहीं हो पाया क्योंकि किसान सभी तरह के मामले वापस लेने पर अड़े हैं, लेकिन सरकार कह रही है कि केवल मामूली केस ही माफ किए जा सकते हैं, गंभीर नहीं। यह सही भी है, इस वर्ष राजधानी दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर जैसा उपद्रव मचाया गया था, अगर उसके आरोपियों पर दर्ज केस भी वापस लिए जाएंगे तो यह उन उपद्रवियों की जीत होगी, जिन्होंने कानून और व्यवस्था को आंखें दिखाकर अपना मनोरथ पूरा कर लिया था। भारत में राजनीति कानून और व्यवस्था पर भारी पड़ती रही है, सत्ता में बैठे नेताओं को आखिर समर्थन तो उसी भीड़ से जुटाना होता है, जोकि शासन-व्यवस्था को चुनौती भी देती है और उसका मर्दन भी करती है। किसान आंदोलन में किसानों की अपनी मांगों को लेकर कहीं विनम्रता नहीं देखने को मिली है। हर जगह उपद्रव और जोर-जबरदस्ती करके सरकार पर दबाव बनाने की जुगत ही रही है। हरियाणा में भाजपा-जजपा सरकार के मंत्रियों, विधायकों, सांसदों समेत मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, विधानसभा उपाध्यक्ष आदि का जिस प्रकार घेराव किया गया, उनके खिलाफ नारेबाजी की गई और उन्हें सार्वजनिक कार्यक्रम करने से रोका गया वह आंदोलन की आड़ में जोर जबरदस्ती ही कही जाएगी।

   गौरतलब है कि संयुक्त किसान मोर्चा के 11 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने हरियाणा के दिवंगत किसानों को मुआवजा देने, उनके परिजनों को नौकरी दिए जाने तथा किसानों पर दर्ज तमाम मुकदमे वापस लेने की मांग सरकार के समक्ष रखी। हालांकि सरकार ने कहा कि प्रधानमंत्री ने बिना शर्त किसानों की सबसे बड़ी मांग स्वीकार कर ली है। इसके अलावा फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी संबंधी कानून बनाने के लिए केंद्रीय कमेटी के गठन की दिशा में सरकार पूरी गंभीरता के साथ आगे बढ़ रही है। ऐसे में अब आंदोलन को बरकरार रखने का कोई औचित्य नहीं है। बावजूद इसके संयुक्त किसान मोर्चा के नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने वार्ता विफल होने की घोषणा की। मोर्चे की ओर से मुख्यमंत्री के सामने किसानों पर आंदोलन से पहले और बाद में दर्ज सभी मुकदमे वापस लेने की मांग रखी गई। इन मुकदमों की संख्या 262 के आसपास है, जिसमें करीब पांच हजार लोगों को नामजद किया गया है। आंदोलन करते हुए हरियाणा के 110 किसानों की जान गई है। उन सभी के परिजनों को उचित मुआवजा तथा परिवार के सदस्यों को सरकारी नौकरी देने की मांग की गई। दिवंगत किसानों की याद में संयुक्त किसान मोर्चा एक शहीद स्मारक बनाना चाहता है। इसके लिए सोनीपत के आसपास जगह देने की मांग सरकार से की गई।

 हालांकि किसान संगठनों के लिए यह बड़ी बात है कि राज्य सरकार अब इन मसलों को लेकर भी बातचीत को तैयार हुई है। सरकार की मंशा सभी विवादों का निपटारा करके फिर से सामान्य हालात कायम करने के हैं। इसी के चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां कृषि कानूनों को वापस लिया है, वहीं हरियाणा सरकार ने भी सुलह की तरफ कदम बढ़ाए हैं। मुख्यमंत्री मनोहर लाल लंबे समय से किसान संगठनों से वार्ता की बात करते आए हैं, कुंडली, टीकरी बॉर्डर पर किसानों के जमावड़े से प्रदेश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा है। कारोबार बुरी तरह प्रभावित हो चुका है, हरियाणा रोडवेज की बसें सीधे दिल्ली और यूपी नहीं जा पा रही। पेट्रोल पंप और दूसरे कारोबार से जुड़े व्यवसायियों को भी दिक्कत हो रही है। ऐसे में आंदोलन का अब समापन होना चाहिए और किसानों को अपने घर लौट जाना चाहिए। लेकिन एक मांग पूरी होती है तो किसान संगठन दूसरी को लेकर अड़ जाते हैं, एक किसान नेता कहता है कि अब जल्द ही घर लौट जाएंगे लेकिन किसी दूसरे का बयान आता है कि जब तक सभी मांगें पूरी नहीं हो जाती, तब तक घर वापसी नहीं होगी। हरियाणा में सिंघु बॉर्डर तो किसान आंदोलनकारियों की आड़ में ऐसे उपद्रवियों का घर बन चुका है, जोकि हत्याएं तक कर देते रहे हैं। ऐसे में सरकार को व्यवस्था तो बनानी ही होगी।

बेशक, चुनावी बेला है और कृषि कानूनों को वापस लेने के पीछे भी मतदाताओं को साधना है, यही वजह है कि हरियाणा सरकार ने कहा है कि उसे केंद्र सरकार की ओर से संकेत का इंतजार रहेगा। यानी अगर केंद्र सरकार इसका इशारा करती है कि दर्ज केस भी वापस लिए जाएं तो सरकार यह कदम भी उठा लेगी। लेकिन यह मामला किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं कहलाएगा। सरकार के फैसले का विरोध करने का जनता को हक है, लेकिन जनता अगर अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर उपद्रव में भागिता करती है और उसकी वजह से संपत्ति को नुकसान पहुंचता है तो यह कानूनन अपराध ही कहलाएगा। ऐसे में अगर हर किसी को माफी दे दी जाएगी तो फिर कानून बनाने का औचित्य ही नहीं रहेगा। सरकार को चाहिए कि गंभीर प्रवृत्ति के अपराधों में क्षमा न दी जाए, उसे अपने स्टैंड पर कायम रहना होगा, वरना यह व्यवस्था का उपहास होगा।